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हड़प्पा सभ्यता
- August 28, 2023
- Posted by: Sushil Pandey
- Category: Daily Blogs Free Resources
हड़प्पा सभ्यता
सिंधु सभ्यता का नाम लेते ही स्मृति पटल पर एक ऐसी नगरी साक्षर संस्कृति की तस्वीर उभरती जो तीसरी तथा दूसरी शताब्दी के प्रारंभ में सिंधु और उसकी सहायक नदियों के पास पड़ोस में विकसित हुई। इसके प्रथम ज्ञात नगर है हड़प्पा जो सिंधु नदी की सहायक का रावी नदी के सूखे तल के किनारों पर है और मोहनजोदड़ो जो सिंधु नदी के पड़ोस में ही उसके प्रवाह की दिशा में 570 किलोमीटर पर उपस्थित है। फिर भी भौगोलिक दृष्टि से इस सभ्यता (जिसे हड़प्पा भी कहते हैं और जो इसका प्रथम अज्ञात स्थल है) मे सिंधु क्षेत्र से अधिक हिस्से शामिल थे। यह पूर्व और दक्षिण पूर्व में नदियां निम्न भूमियों उत्तर में उच्च भूमि वाले क्षेत्रों और सिंधु प्रणाली के दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व के तटीय कटिबंध तक फैला था।
- सिंधु घाटी सभ्यता या हड़प्पा सभ्यता ताम्र पाषाण थी इस संस्कृति का नाम हड़प्पा संस्कृति इसलिए पड़ा क्योंकि यह संस्कृति का सबसे पहले पता 1921 में हड़प्पा स्थल पर चला था। इसे सिंधु घाटी की सभ्यता भी कहते हैं।
- चार्ल्स मैस्सन ने 1826 ईसवी में हड़प्पा टीले का सर्वप्रथम उल्लेख किया तथा इसका रहस्य रहस्योद्घाटन 1856 ईस्वी में कराची और लाहौर के बीच पटरी बिछाने के दौरान हुआ। जब विलियम ब्रंटन तथा जॉन ब्रंटन ने दो प्राचीन नगरों का पता लगाया।
- सिंधु घाटी के किलीगुल मोहम्मद एवं मुंडीगांक अफगानिस्तान में बलूचिस्तान में 3000 ईशा पूर्व के मध्य में अनेक गांव बस गए जहां सैन्धव सभ्यता के आरंभिक काल का बीजारोपण हुआ आरंभिक काल की प्रमुख संस्कृति या निम्न है-
- कुल्ली संस्कृति: इसके मुख्य स्थल मेंही, रोजी व मजेरा दंब आदि हैं।
- नाल संस्कृति: इसका मुख्य स्थान दक्षिणी बलूचिस्तान था।
- झाब संस्कृति: इसके मुख्य स्थल मुगल घुंडई, राना घुंडई, डाबरकोप, परिआनो गुंडई थे यहां के मृदभांड पर लाल पर काले रंग का अलंकरण है।
- क्वेटा संस्कृति: इसके मुख्य स्थल दंभ सादात व किलीगुल मोहम्मद है।
भौगोलिक विस्तार
- सेंधव सभ्यता की क्षेत्र आकृति त्रिभुजाकार है तथा क्षेत्रफल 1299600 वर्ग किलोमीटर है। इस की उत्तरी सीमा जम्मू (मांडा), दक्षिणी, नर्मदा के मुहाने भगतराव, पूर्वी, आलमगीरपुर (उत्तर प्रदेश) तथा पश्चिमी सीमा बलूचिस्तान के मकरान सुत्कागेंडोर तक थी। वह उत्तर से दक्षिण तक 1100 किलोमीटर तथा पूर्व से पश्चिम तक 1600 किलोमीटर विस्तृत थी।
- इस सभ्यता के अवशेष दक्षिणी अफगानिस्तान, क्वेटा घांटी, मध्य तथा दक्षिणी बलूचिस्तान, पंजाब बहावलपुर तथा सिंधु क्षेत्र में भी पाए गए हैं।
कालक्रम: ऐसी संभावना नहीं लगती हड़प्पा के विस्तार क्षेत्र के सभी भागों में सभ्यता के प्रस्फूटन की प्रक्रिया साथ-साथ चली। ईशा के 2600 वर्ष पूर्व तक यह सभ्यता विद्यमान थी क्योंकि उस समय मेसोपोटामिया से इसके स्पष्ट संबंध थे। इसकी संभावना बढ़ती प्रतीत होती है कि यह पहले सिंध की निम्न भूमि चोलिस्तान और संभवत: कच्छ क्षेत्र जो एक नदी द्वारा चोलिस्तान के क्षेत्र से जुड़ा हुआ था मे परिपक्व हुई। हड़प्पा कालीबंगा और बनवाली के नगर कुछ बाद में अस्तित्व में आए इसका अंत भी भिन्न-भिन्न समय में हुआ मोहनजोदड़ो नगर का पता ईसा के 2200 वर्ष पूर्व में आरंभ हुआ और 2100 वर्ष पूर्व तक यह नगर नष्ट हो गया। फिर भी सभ्यता दूसरे क्षेत्रों में ईसा के लगभग 2000 वर्ष पूर्व के बाद और कुछ स्थलों पर ईसा के 1800 वर्ष पूर्व तक कायम रही।
सिंधु कालीन समाज
- सैन्धव समाज में कृषक, शिल्पकार, मजदूर वर्ग आदि सामान्य जन थे तथा पुरोहित, अधिकारी, व्यापारी व चिकित्सक आदि विशिष्ट जन थे। सबसे प्रभावशाली वर्ग व्यापारियों का था।
- सैन्धव समाज मातृ प्रधान था।
- हड़प्पा नगर के दुर्ग के बाहर मिले सार्वजनिक अन्नागार के पास मिले निम्नस्तरीय आवासों से प्रतीत होता है कि उसमें दास या बंधुआ मजदूर रहा करते होंगे कालीबंगा एवं लोथल में ऐसे आवास नहीं मिले है।
- सिंध तथा पंजाब के लोग गेहूं और जौ, राजस्थान के लोग जौ, गुजरात के रंगपुर के लोग चावल, बाजरा खाते थे।
- पासो जैसे उपकरण तथा चेस की गोटियांनुमा आकृति भी मिली है।
प्रमुख हड़प्पा स्थल
- भीर्राना प्राचीनतम तथा राखीगढ़ी सबसे बड़ा स्थल: हाल के शोधों से यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि हरियाणा के फतेहाबाद स्थित भीर्राना हड़प्पा का प्राचीनतम स्थल था। सी-14 कार्बन डेटिंग के अनुसार भीर्राना का काल 7570 ईशा पूर्व से 6200 ईसा पूर्व था पहले मेहरगढ़ को हड़प्पा का प्राचीनतम स्थल माना जाता था।
- हरियाणा का ही राखीगढ़ी स्थल मोहनजोदड़ो का गुजरात के धोलावीरा से भी बड़ा था पुरातत्वविदो के अनुसार राखीगढ़ी का कुल क्षेत्रफल 350 हेक्टेयर से अधिक रहा होगा मोहनजोदड़ो 200 हेक्टेयर, हड़प्पा 150 हेक्टेयर धोलावीरा 100 हेक्टेयर में फैला था।
- मोहनजोदड़ो: यह सिंध के लकराना जिला में स्थित है इसकी खोज 1922 में राखल दास बनर्जी ने की थी मोहनजोदड़ो का अर्थ होता है मृतकों का टीला।
- यहां का सबसे महत्वपूर्ण स्थल वृहत्त स्नानागार। यह स्नानागार 11.88 मीटर लंबा और 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा था।
- मोहनजोदड़ो की सबसे बड़ी संरचना विशाल अन्नागार है जो 45.71 मीटर लंबा व 15.23 मीटर चौड़ा है।
- हड़प्पा: यह पाकिस्तान के पंजाब राज्य के मांटगोमरी जिले में रावी नदी के बाएं तट पर स्थित है दो टीला पूर्वी एवं पश्चिमी भाग में है।
- 1921 में दयाराम साहनी ने इसका सर्वेक्षण किया। 1926 में माधोस्वरूप वत्स तथा 1946 में मार्टीमर व्हीलर ने इसका व्यापक उत्खनन करवाया।
- यहां अन्नागार गढ़ी के बाहर है जबकि मोहनजोदड़ो में यह गढी के अंदर बना है। भवनों में अलंकार और विविधता का अभाव है।
- यहां से प्राप्त मुख्य चीजों में है अनाज कूटने के 18 वृत्ताकार चबूतरे, 12 कक्षो वाले अन्नागार कब्रिस्तान आर -37 ताबूत में शवाधान का साक्ष्य।
- यहां से पीतल की इक्का गाड़ी, शंख का बना बैल, सांप को दवाए गरुड़ चित्रित मुद्रा, स्त्री के गर्भ से निकलता पौधे का चित्र, कागज का साक्ष्य, शव के साथ बर्तन व आभूषण, मजदूरों के आवास प्राप्त हुए हैं।
- कालीबंगा: यह राजस्थान के गंगानगर जिला मैं स्थित है इसकी खोज 1953 में ए घोष ने की थी।
- कालीबंगा का अर्थ काली चूड़ियां होता है इसका निचला शहर भी वर्गीकृत है यहां से सार्वजनिक नाली के साक्ष्य नहीं मिले हैं।
- यहां से विशाल दुर्ग दीवार के साक्ष्य, लकड़ी की नाली के साक्ष्य, लकड़ी के हल के साथ बुवाई का साक्ष्य मिला है। यहां से आयताकार 7 अग्नि वेदिकाए मिली है। यहां जल निकास प्रणाली नहीं थी। यहां से प्राक हड़प्पा के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।
- लोथल: यह गुजरात के अहमदाबाद जिले में स्थित है। भोगवा नदी के तट पर स्थित इस नगर की खोज डॉ एस आर राव ने की थी।
- यहां दुर्ग और आवासीय नगर के लिए अलग-अलग टीले नहीं थे तथा मकानों का मुख्य दरवाजा सड़क की ओर खुलता था। नगर आयताकार है। यहां संपूर्ण नगर सुरक्षा धीरे से घिरा हुआ था।
- लोथल सैन्धव सभ्यता का मुख्य बंदरगाह था। यहां के उत्खनन से डॉकयार्ड मिला है।
- यहां से रंगाई का कुंड बनाने का कारखाना, घोड़े की लघु मृण्मूर्ति, खिलौना नाव, मिट्टी के बर्तन पर चालाक लोमड़ी की कहानीनुमा चित्रांकन प्राप्त हुए हैं। युगल शवाधान के प्रमाण भी यहां से प्राप्त हुए हैं।
- चन्हूदडो: इस मोहनजोदड़ो से 80 मील दक्षिण में स्थित था किसकी खोज 1931 में एमजी मजूमदार तथा 1935 में मैंके ने की।
- यहां से झूकर व झांकड संस्कृति के अवशेष मिले हैं तथा मनका निर्माण गुड़िया तथा मुहर निर्माण का कारखाना मिला है यहां से प्राप्त अवशेष तथा वस्तुएं हैं वक्राकार ईंटें,ईंटों पर बिल्ली का पीछा करते कुत्ते के पंजे का निशान, अलंकृत हाथी, कंघा, उस्तरा, चार पहियों वाली गाड़ी, तीन घड़ियाल एवं दो मछलियों वाली मुद्रा। यहां से संस्कृति के तीन चरण पाए गए हैं।
- धोलावीरा: गुजरात के कच्छ जिले में स्थित इस स्थल की खोज 1991 में आर एस बिष्ट ने की थी अवस्थित यह अत्यंत विशाल नगर है। नगर तीन भागों में विभाजित था: गढी, मध्य तथा निचले नगर में विभाजित था या दुर्ग नगर के दक्षिणी भाग में तथा जबकि अन्य नगरों में पश्चिमी भाग में था नगर की आकृति समानांतर चतुर्भुज की है यह नगर 7 सांस्कृतिक चरणों से संबंधित है।
- बनवाली: हरियाणा के हिसार जिला में स्थित इस नगर की खोज आर एस बिष्ट ने 1973 में की।
- यहां से जल निकास के साक्ष्य नहीं मिले हैं यहां से हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पा सांस्कृतिक चरण के अवशेष मिले हैं।
- रंगपुर: गुजरात के अहमदाबाद जिले में स्थित इस स्थल की खोज 1931 में एम एस वत्स तथा 1953 में एसआर राव ने की।
- रंगपुर से तीन संस्कृतियों प्राक हडप्पा विकसित हड़प्पा उत्तर हड़प्पा के साक्ष्य मिले हैं। यहां से धान की भूसी वह ज्वार,बाजरा के साक्ष्य मिले हैं।
- रोपड: सतलज नदी के किनारे पंजाब स्थित रोपड़ की खोज यज्ञदत्त शर्मा ने 1955 से 56 में कि यहां से मानव के साथ कुत्ते के शवाधान का साक्ष्य मिला है यहां से प्रारंभिक ऐतिहासिककाल, ताम्रपाषाणकाल तथा नवपाषाणकाल के साक्ष्य मिले हैं संभवत आग लगने से इस नगर का विनाश हुआ था।
- सुरकोटड़ा: यह गुजरात के कच्छ जिला में स्थित है और इसकी खोज जगपति जोशी ने 1964 में की।
- गुजरात स्थित सुरकोटड़ा से घोड़े की अस्थियां एंटीमनी की छड़ व शापिंग कांपलेक्स के साक्ष्य मिले हैं।
- सूत्कागेंडोर: यह बंदरगाह था तथा विदेशी व्यापार का केंद्र था यहां से मनुष्य अस्थि राख से भरा बरतन तथा थावे की कुल्हाड़ी मिले हैं।
- अन्य नगर: कुणाल हरियाणा से चांदी के दो मुकुट मिले हैं तथा यह सरस्वती नदी के किनारे बसा था संघोल (चंडीगढ़ के पास) से अग्नि कुंड के साक्ष्य मिले हैं।
- आलमगीरपुर उत्तर प्रदेश के मेरठ जिला में हिंडन नदी के किनारे स्थित है।
- कोटदीजी सिंध प्रांत के खैरपुर में स्थित है इसकी खोज 1935 में फजल अहमद खाने की यहां से प्राक हड़प्पा के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।
आर्थिक स्थिति
- कपास की खेती का आरंभ सर्वप्रथम उन्हीं लोगों ने किया इसलिए यूनानीयों ने क्षेत्र को सिंडोन नाम दिया। यही सिंडोन बाद में सिंधु नाम से जाना जाने लगा।
- मुख्य कृषि उत्पाद थे खजूर, सरसों, मटर, बाजरा, कपास, केला, तरबूज, नारियल, जौ, तिल, अनार आदि।
- चावल के अवशेष रंगपुर तथा लोथल से प्राप्त हुए हैं।
- हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो से छ: धारियों वाले जौ के साक्ष्य मिले हैं।
- घोड़े पालने का साक्ष्य नहीं मिला है परंतु हाथी को पालतू बना लिया गया था।
- कालीबंगा से जूता हुए खेत का साक्ष्य तथा बनवाली से खिलौना हल् का साक्ष्य मिला है।
- व्यापार मुख्यता विनिमय पद्धति से किया जाता था तथा तौल की ईकाई संभवत 16 के अनुपात में थी।
- मुख्य व्यापारिक नगर अथवा बंदरगाह थे भगतराव, मुंडीगाक, बालाकोट, सुत्कागेंडोर, सोत्काकोह, मालवान, प्रभासपाटन, डाबरकोट।
- मेसोपोटामिया वर्णित शहर मेलूहा सिंध क्षेत्र का ही प्राचीन नाम है। मेसोपोटामिया (ईराक) सैन्धव के विनिमय स्थल दिलमूल और मकान थे दिलमन संभवत बहरीन द्वीप था माकन संभवत ओमान था।
- मेसोपोटामिया में सैंधव व्यापारियों के निवास के साक्ष्य मिले हैं परंतु मेसोपोटामिया बस्तियों के साथ सैंधव स्थलों में नहीं मिले हैं।
- मेसोपोटामिया से आयातित वस्तुएं थी ऊन, खुशबूदार तेल, कपड़े आदि।
- सैंधव सभ्यता के निर्यात की वस्तुएं थी तांबा, मोर, हाथी दांत की वस्तुएं, कंघा, सूती वस्त्र।
- मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त बेलनाकार फारस की मुद्राएं प्राप्त हुई है।
- हड़प्पा से प्राप्त मोहरों के चित्र में मानव एवं बैल युद्ध का अंकन है जो क्रिट कला एवं बाघ के लड़ाई के चित्र है वह सुमेरियन कहानी पर आधारित है।
- बर्तन बनाना अत्यंत महत्वपूर्ण उद्योग था अन्य महत्वपूर्ण उद्योग धंधे थे बुनाई, मुद्रा निर्माण, मनका निर्माण, ईट निर्माण, धातु उद्योग, मूर्ति निर्माण।
- मोहनजोदड़ो से ईट भट्टों के अवशेष मिले हैं।
- मिट्टी के बर्तन साधे हैं एवं उन पर लाल पट्टी के साथ-साथ काले रंग की चित्रकारी है तथा तराजू, मछलियां, वृक्ष आदि के चित्र हैं।
- सबसे ज्यादा मिट्टी के बर्तन मिले हैं उसके बाद मिले बर्तन ताबे के हैं।
- सिंध में सुक्कूर बाजार का निर्माण व्यापक पैमाने पर किया जाता था।
कला तथा शिल्प
- सबसे प्रसिद्ध कलाकृति है मोहनजोदड़ो से प्राप्त नृत्य की मुद्रा में नग्न स्त्री की कांस्य प्रतिमा।
- मोहनजोदड़ो से प्राप्त दाढ़ी वाले व्यक्ति की मूर्ति भी प्रसिद्ध कलाकृति है संभवत यह पुजारी की प्रतिमा है।
- अधिकतर मन के सेलखड़ी के बने हैं। सोने एवं चांदी के मनके भी पाए गए हैं। मोहनजोदड़ो से गहने भी पाए गए हैं।
- चन्हूदडो एवं लोथल में मनके बनाने के कारखाने थे।
- सभी नगरों से टेरीकोटा की मृणमूर्तियां प्राप्त हुई है जैसे बंदर, कुत्ता, वृषभ आदि की मृणमूर्तियां।
- स्वास्तिक चिन्ह सैंधव सभ्यता की देन माना जाता है सुरकोटड़ा तथा मोहनजोदड़ो से बैल की मृणमूर्ति मिली है।
- मानवीय मृणमूर्तियों में सबसे अधिक मृणमूर्तियां स्त्रियों की है।
- सैंधव सभ्यता के लोग सेलखड़ी, लालपत्थर, फिरोजा, गोमेद व अर्ध कीमती पत्थर का उपयोग मनके बनाने में करते थे।
- लिपि: सिंधु लिपि में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 250 से 400 तक अक्षर है जो सेलखड़ी की आयताकार मोहरों, तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिले हैं यह लिपि भाव चित्रात्मक थी।
- लिपि का सबसे ज्यादा प्रचलित चिन्ह मछली का है सैंधव भाषा अभी तक अपठनीय है।
- मुहरें: सैंधवलेख अधिकांशतः मुहरों पर ही मिले हैं संभवत इन मुहरों का उपयोग उन वस्तुओं की गांठ पर मुहर लगाने के लिए किया जाता था जो निर्यात की जाती थी।
- मुहरें बेलनाकार, वृत्ताकार, वर्गाकार तथा आयताकार रूप में है।
- अधिकांशतः मुहरे सेलखड़ी की बनी है विभिन्न स्थलों से दो हजार से ज्यादा मुहरे प्राप्त हुई है मुहरों पर सर्वाधिक चित्र एक सींग वाले सांड (वृषभ) की हैं।
धर्म एवं दर्शन
- सैंधव काल में प्रचलित आस्थाएं- मातृ पूजा, पृथ्वी व उर्वरता की पूजा, नाग यक्ष की पूजा, वृक्ष (पीपल आदि) व पशुओं की पूजा, अग्निपूजा, मातृ देवी, लिंग उपासना थी।
- लिंग पूजा के प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं।
- मोहनजोदड़ो एक मुहर पर योगी की मुद्रा में बैठा एक व्यक्ति है यह देवता बकरी, हाथी, शेर तथा हिरण से घिरा हुआ है इसे पशुपति शिव माना जाता है।
- कालीबंगा से अग्निवेदिकाएं मिली है अर्थात वह अग्निपूजा प्रचलित थी।
- मृतक को सामान्यता उत्तर दक्षिण दिशा में लिटा कर दफनाया जाता था। रोपड़ में एक कंकाल पश्चिम पूर्व, लोथल में पूर्व पश्चिम तथा कालीबंगा में दक्षिण उत्तर दिशा में पाया गया है। लोथल में युग्म शवाधान के साक्ष्य मिले हैं।
- हड़प्पा से आर-37 कब्रिस्तान मिला है तथा एक ताबूत मिला है।
- सामूहिक नरकंकाल एवं दाहसंस्कार के साक्ष्य मोहनजोदड़ो से मिला है।
नगर योजना
- सैंधव सभ्यता की सबसे उत्कृष्ट विशेषता उसकी नगर योजना थी उनके छह स्थलों को ही नगरों की संज्ञा दी जाती थी हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, चन्हूदडो, बनावली।
- नगरें दो भागों में विभाजित थी नगर संरचना (धौलावीरा को छोड़कर) पश्चिमी भाग शासक वर्ग के लिए तथा पूर्वी भाग आमजन के लिए था।
- नगरों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी नगर निकास हेतु नालियों की व्यवस्था।
- नगर की सड़कें एक दूसरे को समकोण पर काटती थी तथा मुख्य मार्ग उत्तर से दक्षिण की ओर जाता था। सड़कें कच्ची थी।
- मकानों में पक्की एवं बिना पकी ईंटों का प्रयोग होता था। मकान बहूमंजिलें थे।
- लोथल को छोड़कर सभी नगरों के मकानों के मुख्य द्वार बगल की गलियों में खुलते थे।
पतन के कारण
आर्य आक्रमण: गार्डन चाइल्ड व्हीलर
पारिस्थितिकी असंतुलन: फेयर सर्विस
नदी मार्ग में परिवर्तन: एमएस वत्स
बाढ़: मैक व एसआर राव
घग्गर का सूख जाना: डीपी अग्रवाल
भूकंप एवं जल प्लावन: राइक्स एवं डेल्स वर्षा में कमी आस्टाईन
ताम्र पाषाण संस्कृतियां
आमतौर पर यह माना जाता है कि हड़प्पा संस्कृति के बाद एक ऐसी गैर शहरी ताम्र पाषाण संस्कृति विकसित हुई जिसकी मुख्य विशेषता थी तांबा और पत्थर को उपयोग में लाना इन संस्कृतियों में जो भी अंतर थे फिर मौलिक ना होकर मुख्यता मृडपात्रों (मृदभांडों) तक सीमित थे। सीमित मात्रा में ताम्र और भारी मात्रा में पत्थर की धारों का उपयोग करने वाली इन संस्कृतियों का प्रथम अभ्युदय ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के दौर में हुआ।
गैरिक मृदभांड: अधिकांश गैरिक मृदभांड के स्थल गंगा के दोआब जो कछारी मैदान है में पाए जाते हैं जोधपुरा, सिस्वाल, मितथाल, बारा, अंबखेरी और बड़गांव अंतरजीखेरा और सैपाली में पाए गए हैं।
ताम्र संचय संस्कृति: छोटा नागपुर अधित्यका से लेकर गंगा घाटी के विस्तृत क्षेत्र में तांबे के अनेक जखीरे पाए गए हैं जिनमें अंगूठियां और ऊंचेस्कंध वाले सेल्ट, मछली मारने की वर्धियां, कुठारे, मानवी आकृतियां, दुधारी कुठारे, कोटर वाले कुठार इत्यादि शामिल है इनमें अधिकांश खोजे आकस्मिक प्राप्तियां हैं और अन्य शिल्पगत सामग्रियों की सूचना नहीं मिली है भागरापीर, बहादुराबाद, सरथवली, फतेहगढ़, निओरी, नसीरपुर, बिसौली और मिंदापुर कुछ महत्वपूर्ण स्थल है जहां ताबे की वस्तुएं बहुतायत से मिली है।
आहार अथवा बनास संस्कृति: अहार और गिलुंड मुख्य स्थल है जहां सम्यक रूप से खुदाई हुई है यद्यपि संस्कृति के 50 से अधिक स्थल बनास नदी की घाटी और दक्षिण पूर्व राजस्थान में ज्ञात हुए हैं।
कयथा संस्कृति: मध्य भारत में पाषाण कांस्य युगीन संस्कृतियों में कयथा संस्कृती सबसे पूर्व की है कयथा एकमात्र स्थल है जिसकी खुदाई सही ढंग से हुई है हालांकि 40 अन्य स्थल इस कल्चर का प्रतिनिधित्व करने वाले ज्ञात हुए हैं तथा संस्कृति के मुख्य विशेषता है उनके तीन किस्म के मृतिका उद्योग जिनमें बैंगनी अथवा गाढे लाल रंग में रंजित मोटा, मजबूत, भूरा लेप वाला मृदभांड सबसे प्रमुख है।
मालवा संस्कृति: मालवा संस्कृति कयथा और बनास संस्कृतियों के बाद विकसित हुई मध्य भारत में मालवा की अधित्यका का उल्लेख ऐसे विशाल विस्तार वाले मैदानों के रूप में हुआ है जिन पर विचित्र आकृतियों की चौरस शिखर वाली पहाडिब्यां बिखरी हुई है और जो चिपचिपी काली मिट्टी से आच्छादित है इस दूम्मटी जमीन में नमी धारण करने की असाधारण क्षमता है और इसलिए यह अपनी उर्वरता के लिए काफी विख्यात है। मालवा संस्कृति के स्थल मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों राज्यों में पाए गए हैं खोदे गए सर्वाधिक ज्ञात स्थल हैं एरण, नागदा और नवादा टोली मध्य प्रदेश में तथा इनामगांव महाराष्ट्र में जिन स्थलों के बारे में हमें अच्छी जानकारी मिली है उनमें नवादा टोली एक है क्योंकि इस स्थल की खुदाई बड़ौदा विश्वविद्यालय और देक्कन कॉलेज द्वारा तीन मौसमों तक चली और इनके पूर्ण विवरण उपलब्ध हैं।
जोरवे संस्कृति: हड़प्पा संस्कृति के बाद जोरवे संस्कृति (महाराष्ट्र) भारत की सर्वाधिक ज्ञात प्रागैतिहासिक संस्कृति है इसका नामकरण जोरवे स्थल के आधार पर हुआ है इस संस्कृति के अन्य प्रतिनिधि मूलक स्थल है नेवासा, दैमाबाद, इनामगांव, चंदौली, नासिक, सोनगांव इत्यादि इनामगांव में जोड़ने के बस्तियों में मिट्टी और पत्थर की किलेबंदी के साथ समृद्ध गांवों के सारे चिन्ह मौजूद थे।
पूर्वी ताम्र पाषाण संस्कृतियां: पूर्वी ताम्र पाषाण संस्कृति या ईसा के लगभग 1600 वर्ष पूर्व उदित हुई और ईसा के लगभग 800 वर्ष पूर्व तक चलती रही इसकी खुदाई वाले महत्वपूर्ण स्थल हैं चिरांद, राजार ढिबरी, महिषदल और भरतपुर इत्यादि। चिरांद के ढेर को 3 अवधि में बांटा गया है प्रथम अवधि नवपाषाण की दूसरी अवधि ताम्र पाषाण की और तीसरी अवधि लोहे के आविर्भाव की है।
दक्षिण–पश्चिम व कश्मीर की नवपाषाण- ताम्रपाषाण संस्कृतियां: पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में यह सिलसिला घालीगाई गुफा और तिमारगढ़ अलीग्राम इत्यादि अनेक समाधि स्थल जो सभी स्वात में है कि खुदाईयों से शुरू होता है घालीगाई गुफा में निम्न स्तरीय हस्तनिर्मित खुरदुरे मृण्पात्र मिले हैं।
- कश्मीर में सर्वाधिक ज्ञात नवपाषाण स्थल बुर्जाहोम में हैं बुरझाहोम में मिले ढेर को चार अवधि ओं में बांटा गया है जिसमें प्रथम दो नवपाषाण तृतीय महापाषाण है और चतुर्थ आरंभिक इतिहास का है यहां की सर्व प्रमुख विशेषता है गर्त निवास। बुर्जाहोम की नवपाषाण की संस्कृति का युग ईशा के लगभग 2400 से 1500 वर्ष पूर्व के बीच है।
- ब्रह्मगिरि, मास्की, पिकिलहल, संगनकल्लू, टेक्कलकोट, हल्लूर, उतनूर, टी.नरसीपुरा और कूपगल जैसे स्थलों पर की गई खुदाई उसे दक्षिण की नवपाषाण एवं ताम्र पाषाण संस्कृति की झलक मिलती है।
ताम्र पाषाण संस्कृतियों की अवधि
अहार संस्कृति : 2100-1500 ई.पू.
गैरिक मृदभांड संस्कृति : 2000-1500 ई.पू.
कयथा संस्कृति :. 2000-1800 ई.पू.
सवालदा संस्कृति :. 2000-1800 ई.पू.
मालवा संस्कृति :. 2000-1200 ई.पू.
जोरवे संस्कृति :. 2000-700 ई.पू.