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बाल मनोविज्ञान

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बाल मनोविज्ञान  

विषय सूचीः

  1. वैयक्तिक भिन्नता
  2. बाल विकास को प्रभावित करने वाले कारक
  3. सीखने की आवश्यकता की पहचान
  4. पढ़ने के लिये वातावरण का सृजन करना
  5. सीखने के सिद्धान्त तथा कक्षा शिक्षण में इनकी व्यवहारिक उपयोगिता एवं प्रयोग
  6. दिव्यांग छात्रों हेतु विशेष व्यवस्था

अध्याय-1

वैयक्तिक भिन्नता

प्रकृति का यह नियम है कि सम्पूर्ण संसार में कोई भी दो व्यक्ति पूर्णतया एक जैसे नहीं हो सकते। उनमें कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य होगी।

वैयक्तिक भिन्नता का विकास

                         वैयक्तिक भिन्नता प्रकृति का स्वभाव, गुण एवं देन है।

  • वैयक्तिक भिन्नता का आधार वंशानुक्रम तथा वातावरण से प्राप्त गुण होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेषताएँ होती हैं, जो कि उसे दूसरे से भिन्न व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती हैं।
  • सर फोसिस गाल्टन, पियर्सन, कैटेल तथआ टरमैन ने वंशानुक्रम का अध्ययन किया और इन शिक्षा शास्त्रियों ने बाल केंद्रित शिक्षा को प्रोत्साहन किया, जिससे बालक की आयु, बुद्धि, रुचि, योग्यता तथा क्षमता का अध्ययन भली-भाँति करके उनके लिए उपयुक्त शिक्षा की व्यवस्था की जा सके।

“बालक की प्रत्येक सम्भावना के विकास का एक विशिष्ट काल होता है। यह विशिष्ट काल वैयक्तिक भेद के अनुसार प्रत्येक में भिन्न-भिन्न होता है, यदि उचित समय पर इस सम्भावना को विकसित करने का प्रयत्न किया गया तो उसके नष्ट होने का भय रहता है।”–     स्किनर

वैयक्तिक भिन्नता का अर्थ स्वरूप (Meaning & Nature of Individual Difference)

        वैयक्तिक भिन्नता या व्यक्तित्व भेद का अर्थ एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से रूप रंग, शारीरिक गठन, विशिष्ट योग्यताओं, बुद्धि, रुचि, स्वभाव, उपलब्धियों तथा व्यक्तित्व के अन्य गुणों में भिन्न होना है।

     स्किनर के अनुसार, “आज हमारा यह विचार है, कि व्यक्तिगत विभिन्नताओं में सम्पूर्ण व्यक्तित्व का कोई भी ऐसा पहलू सम्मिलित हो सकता है, जिसकी माप की जा सके।”

वैयक्तिक भिन्नता की परिभाषाः

     टायलर महोदय के अनुसार इन माप किये जाने वाले विभिन्न पहलुओं में “शरीर के आकार और स्वरूप, शारीरिक कार्यों में गति सम्बन्धी क्षमताओं, बुद्धि, उपल्विधि ज्ञान, रुचियों, अलिवृत्तियों और व्यक्तित्व के लक्षणों में माप की जा सकने वाली भिन्नताओं की उपस्थिति सिद्ध हो चुकी है।

  • वंशानुक्रमः

वंशानुक्रम माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों से संतान को प्राप्त होने वाला गुण है। जिसमें शारीरिक, मानसिक एवं व्यवहारिक गुण सम्मिलित होते हैं। इसी आधार पर प्रत्येक मनुष्य में विभिन्नता पायी जाती है।

  • पर्यावरणः

मानव विकास में पर्यावरण का महत्वपूर्ण स्थान है। सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पर्यावरण के अन्तर्गत वे सभी वस्तुएँ आ जाती हैं, जो मानव विकास एवं उसके सामाजिक सम्बन्धों को प्रमाणित करती हैं।

वैयक्तिक भिन्नता के कारणः

     मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तिगत भिन्नता के कई कारण बताये हैं, जिनमें प्रमुख कारण निम्नलिखित हैः-

  1. वंशानुक्रम

वैयक्तिक भिन्नता का प्रमुख कारण वंशानुक्रम है। मनोवैज्ञानिक गाल्टन, पीयर्सन, टरमैन, मैक्डूगल तथा बिने आदि ने अपने प्रयोगों से सिद्ध कर दिया है कि व्यक्तियों को शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक विशेषताओं का प्रमुख कारण वंशानुक्रम ही है। पैतृक गुणों का संक्रमण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता रहता है और इन्हीं कारण व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्नता दिखाई देती है। उदाहरणार्थ- प्रायः तीव्र बुद्धि के माता-पिता की संतानें तीव्र बुद्धि और मन्द बुद्धि के माता-पिता की संतानें मन्द बुद्धि की होती हैं। कभी-कभी एक ही माता-पिता की सन्तानों में विभिन्नता पाई जाती है। वे मानसिक शक्तियों, स्वभाव और अन्य गुणों में अक-दूसरे से कुछ-कुछ भिन्न अवश्य होती हैं। यह वंशानुक्रम के ही कारण होते हैं।

  • वातावरण

वैयक्तिक भिन्नता का दूसरा कारण वातावरण है। वातावरण के अन्तर्गत पारिवारिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, भौगोलिक और सांस्कृतिक सभी वातावरण का प्रभाव व्यक्ति पर पड़ता है। व्यक्ति जिस प्रकार के वातावरण में रहता है, उसी के अनुसार उसका शारीरिक, मानसिक विकास, रहन-सहन, व्यवहार, आचार-विचार आदि होते हैं। उदाहरणार्थ शिक्षित और सुसंस्कृत परिवार का बालक अशिक्षित परिवार के बालक से भिन्न होता है। गाँव और नगरों के बच्चों में तथा ठण्डे देश और गर्म देश के बच्चों में पर्याप्त भिन्नता दिखाई देती है। जिस देश का प्राकृतिक वातावरण ठण्डा होता है, वहाँ के लोग बलवान और परिश्रमी और गर्म देश के लोग प्रायः निर्बल तथा आलसी होते हैं।

  • आयु बुद्धि

बालक का शारीरिक विकास, मानसिक और संवेगात्मक विकास उसकी आयु के अनुसार होता है। इसलिए विभिन्न आयु के बालकों में अन्तर दिखाई देता है। बुद्धि को जन्मजात क्षमता माना जाता है। फिर भई इस क्षमता का विकास आयु और पर्यावरण से सम्बन्धित होता है। बुद्धि के कारण भी व्यक्तियों में भिन्नता पाई जाती है। अतः बुद्धि में अन्तर होने के कारण व्यक्ति को ऐसी श्रेणी में क्रमबद्ध किया जाता है, जो प्रतिभावान से लेकर मूर्ख हो सकते हैं। बुद्धि की भिन्नता व्यक्तियों में बहुत अन्तर उत्पन्न कर देती है।

  • स्वास्थ्य

शारीरिक स्वास्थ्य के कारण भई व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती है। कुछ लोग स्वस्थ, हृष्ट, पुष्ट, कुछ साधारण तथा कुछ दुर्बल होते हैं, इसलिए उनमें शारीरिक शक्ति और कार्य-क्षमता में भिन्नता पाई जाती है। शारीरिक स्वास्थय का मानसिक स्वास्थ्य से सम्बन्ध होता है। पूर्ण स्वस्थ और अस्वस्थ व्यक्ति में बहुत अन्तर दिखाई देता है। वैयक्तिक भेद का आधार शारीरिक स्वास्थ्य भी होता है।

  • जातिप्रजाति एवं राष्ट्र

व्यक्तिगत भिन्नता के कारणों में जाति, प्रजाति तथा देश का भी प्रमुख स्थान होता है। उदाहरणार्थ ब्राह्मण जाति के व्यक्ति अध्ययनशील, क्षत्रिय जाति के व्यक्ति युद्धप्रिय, साहसी और वैश्य जाति के व्यक्ति व्यापार में कुशल होते हैं। नीग्रो प्रजाति के बालकों से अमेरिकन प्रजाति के बालक, अधिक तेज, बुद्धिमान और कार्यकुशल पाये जाते हें। उसी प्रकार एक राष्ट्र के व्यक्तियों में शारीरिक, बौद्धिक, भावात्मक विशेषताएँ दूसरे राष्ट्र के व्यक्तियों से भिन्न होती हैं। इन्हीं व्यक्तिगत भिन्नताओं के कारण ही हम विभिन्न देश के व्यक्तियों को सरलतापूर्वक पहचान लेते हैं।

  • शिक्षा एवं आर्थिक दशा

शिक्षा द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है और वह शिष्ट, गम्भीर और विचारशील बनता है। शिक्षा ही उसे अशिक्षित और अपशिष्ट व्यक्ति से भिन्न बना देती है। परिवार की आर्थिक, शैक्षिक, भावात्मक तथा सामाजिक विकास को प्रभावित करती है।

  • गत्यात्मक योग्यता

गति सम्बन्धी योग्यता के कारण कुछ लोग कार्य शीघ्रता और कुशलतापूर्वक कर लेते हैं। गतिवाही योग्यता या कुशलता में आयु के साथ वृद्धि होती है। इस कारण भी भिन्न अवस्थाओं में, भिन्न व्यक्तियों में और अन्तर दिखाई देता है।

  • मानसिक विकास का प्रभाव

सभी बालकों में मानसिक योग्यताओं का विकास समान रूप से नहीं होता। मानसिक योग्यताओं के अन्तर्गत बुद्धि, कल्पना, प्रत्यक्षीकरण, तर्क-शक्ति, निर्णय-शक्ति, स्मृति और सीखने की क्षमता आदि आती है। इन सब में बुद्धि का सबसे अधिक महत्व होता है। बालक की शारीरिक आयु और मानसिक आयु में अन्तर होने के कारण भी व्यक्तिगत भेद पाया जाता है।

  • संवेगों का प्रभाव

संवेगों के कारण भी व्यक्ति में भिन्नता दिखाई देती है। विभिन्न संवेगों के कारण ही कोई व्यक्ति क्रोधी, लड़ाकू और कठोर दिखाई देता है, जबकि दूसरा व्यक्ति हँसमुख, शान्तिप्रिय एवं दयालु होता है। इस प्रकार वैयक्तिक भिन्नता पर सांवेगिक तत्वों का प्रभाव पड़ता है।

  1. व्यक्तित्व

      व्यक्तित्व व्यक्ति के सभी गुणों का योग होता है। प्रत्येक व्यक्ति में दूसरे व्यक्ति से शारीरिक, संवेगात्मक तथा बौद्धिक गुण भिन्न होते हैं। शारीरिक दृष्टि से सुन्दर-असुन्दर, मोटे-दुबले, संवेगात्मक दृष्टि से उग्र, कठोर लड़ाकू, विनम्र, शांतिप्रिय, शिष्ट और बौद्धिक दृष्टि से बुद्धिमान तथआ बुद्धिहीन व्यक्तित्व वाले व्यक्ति पाये जाते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के कारण भी वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है।

       वैयक्तिक भिन्नता के उपर्युक्त कारण सामान्यतः भेदों के कुछ कारणों का उल्लेख गैरसिन व अन्य ने इस प्रकार किया है- “बालकों की विभिन्नताओं के मुख्य कारणों को प्रेरणा, बुद्धि, परिपक्वता और वातावरणीय सम्बन्धी उद्दीपन की विभइन्नताओं द्वारा व्यक्त किया जा सकता है।”

वैयक्तिक भिन्नता के प्रकारः

       दो व्यक्तियों में जिन कारणों से भिन्नता पाई जाती है, उन्हीं के आधार पर व्यक्ति में भेद या विभिन्नताओं के प्रकार निश्चित किये गये हैं। व्यक्तिगत भेद के प्रकार निम्नांकित क्षेत्रों में दिखाई देते हैं-

  1. शारीरिक विकास में भिन्नता

शारीरिक भिन्नता के अन्तर्गत रूप, रंग, शारीरिक गठन, भार कद, यौन-भेद तथा शारीरिक परिपक्वता आती है। कुछ व्यक्ति मोटे, कुछ दुबले, कुछ लम्बे, कुछ नाटे, कुछ गोरे, कुछ सुन्दर और कुछ कुरूप होते हैं। मनोवैज्ञानिकों की धारणा है कि इन सब का प्रभाव योग्यता, बुद्धि, स्वभाव, प्रवृत्ति और रुचि पर पड़ता है।

  • मानसिक भिन्नता

मानसिक भिन्नता के अन्तर्गत निम्नांकित वातों का समावेश होता है-

  1. बौद्धिक विकास सम्बन्धी भिन्नता।
  2. मूल प्रवृत्ति सम्बन्धी भिन्नता।
  3. ज्ञानोपार्जन या सीखने में भिन्नता।
  4. रुचि सम्बन्धी भिन्नता।
  5. स्वभाव सम्बन्धी भिन्नता।
  • बौद्धिक भिन्नता के कारणःकोई प्रतिभाशाली, कोई अत्यधिक बुद्धिमान, कोई कम बुद्धिमान और कोई साधारण या मन्द बुद्धइ या मूर्ख होता है। इस योग्यता की जाँच बुद्धि-परीक्षणों द्वारा की जाती है।
  • मूल प्रवृत्ति सम्बन्धी भिन्नता के कारणकुछ व्यक्ति उदार, कुछ कठोर हृदय, कुछ हँसमुख, प्रसन्नचित तथा कुछ सदा उदास और रोनी सूरत बनाये रहते हैं। इसी प्रकार किसी में संग्रह प्रवृत्ति तो किसी में जिज्ञासा प्रवृत्ति अत्यन्त प्रबल होती है। जिज्ञासु व्यक्ति सदा नयी बातों को सीखने और जानने का प्रयास करते हैं।
  • ज्ञानोपार्जन या सीखने में भिन्नता शिक्षा के क्षेत्र में व्यक्तिगत भिन्नता का तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी के पढ़ने-लिखने और विभिन्न पाठ्य-विषयों में पाया जाने वाला अन्तर जिसके कारण उसकी उपलब्धि में अन्तर पाया जाता है। उपलब्धि परीक्षाओं द्वारा यह ज्ञात होता है कि बालकों की सीखने की क्षमता में भी भिन्नता पाई जाती है। छात्रों के सीखने की क्षमता द्वारा यह ज्ञात होता है कि बालकों की सीखने की क्षमता में भी भिन्नता पाई जाती है। छात्रों के सीखने की क्षमता में अन्तर होने के कारण अध्यापक को व्यक्तिगत एवं कक्षा-शिक्षण विधियों को आवश्यकतानुसार अपनाना चाहिए।
  • रुचि सम्बन्धी भिन्नता के कारणकुछ बालक पढ़नें में और कुछ खेलने में तेज होते हैं। बालक और वयस्क की रुचि में, बालक और बालिकाओं की रुचि में और स्त्री और पुरुष की रुचि में अन्तर होता है।
  • स्वभावगत भिन्नता के कारण कोई व्यक्ति उग्र, उद्दंड तथा कोई नम्र और सुशील होता है। इसी प्रकार बालक और बालिका के स्वभाव में भी अन्तर होता है।
  • व्यक्तित्व संबंधी भिन्नताः

मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व संबंधी गुणों के कारण किसी व्यक्ति को अन्तर्मुखी, किसी को बहिर्मुखी प्रवृत्ति का कहा है। व्यक्तित्व की भीन्नता के भी कई भेद होते हैं। व्यक्तिगत भिन्नता को ज्ञात करने के लिए व्यक्तित्व संबंधी भिन्नता के विषय में जानना आवश्यक है। व्यक्तित्व भेद को लेकर मनोवैज्ञानिकों ने अनेक अध्ययन किये हैं। अतः सर्वप्रथम व्यक्तित्व के विकास के स्वरूप को समझना आवश्यक है।

अधिगम में बुद्धि और व्यक्तित्व के परिवर्त्य

(Intellectual and Personality Variables in Learning)

सीखने में बुद्धि और व्यक्तित्व के परिवर्त्य का बहुत महत्व है। अतः परिवर्त्य क्या है, इसे जानना आवश्यक है। परिवर्त्य को अंग्रेजी में वैरिएब्लस कहते हैं। शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से परिवर्त्य या चर वे कारक हैं, जो स्वयं परिवर्तनशील या भिन्नताशील होते हैं और जिसके कारण बालकों की सीखने की क्रिया या उपलब्धि में अन्तर उत्पन्न हो जाता है। ये वे कारण हैं, जो सामान्य औसत से भिन्नता को प्रकट करते हैं। सांख्यिकी में भी इस शब्द का प्रयोग होता है। सांख्यिकी में इसे परिवर्त्य या चर कहते हैं। इसका अर्थ है हिलने या चलने योग्य। परिवर्त्य जैविक और मनोवैज्ञानिक अर्थ में उसको कहते हैं, जो परिवर्तन के अधीन हों। एक ही व्यक्ति के गुणों में जो भिन्नता दिखाई देती है, उसे परिवर्त्य कहते हैं।

     इनका सम्बन्ध बुद्धि या व्यक्तित्व के गुणों से हो सकता है। वास्तव में परिवर्त्य या चर भिन्नता का दूसरा नाम है। उदाहरणार्थ-बुद्धि को सीखने का एक परिवर्त्य या चर कह सकते हैं, क्योंकि भिन्न-भिन्न बालकों में बुद्धि की मात्रा भिन्न-भिन्न पाई जाती है। कक्षा में कोई तीव्र बुद्धि का, कोई औसत बुद्धि का और कोई मन्द बुद्धि का बालक होता है। तीव्र बुद्धि बालक निश्चित समय में, औसत या मंद बुद्धि बालकों की अपेक्षा किसी विषय को जल्दी सीख लेता है। यहाँ बुद्धि-लब्धि और शैक्षिक उपलब्धि के कारण उनमें भिन्नता दिखाई देती है। इस प्रकार बुद्धि का गुण एक परिवर्त्य है, जो सीखने की क्रिया को प्रभावित करता है, जैसे एक छात्र में एक विषय को सीखने में मंद बुद्धि हो सकती है और दूसरे में तीव्र बुद्धि दिखाई देती है, जैसे कलात्मक विषय में तीव्र बुद्धि और गणित विषय में मंद बुद्धि का होना।

बुद्धि के परिवर्त्य के प्रकार

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि-परीक्षणों की सहायता से बुद्धि-लब्धि के आधार पर बौद्धिक परिवर्त्य के ये प्रकार बताये हैं, जैसे प्रितिभाशाली, प्रखर बुद्धि, उत्कृष्ट बुद्धि, सामान्य बुद्धि, मंद बुद्धि आदि। इसे बुद्धि के स्वरूप एवं परीक्षण अध्याय में समझाया गया है। ये सब बौद्धिक परिवर्त्य के अन्तर्गत आते हैं-

    बुद्धिलब्धि वर्ग (I.Q. Group)बुद्धिवर्ग (Intelligence Group)
140 से 200 तकप्रतिभाशाली (Genius)
120 से 140 तकप्रखर बुद्धि (Very Superior)
110 से 120 तकउत्कृष्ट बुद्धि (Superior)
90 से 110 तकसामान्य बुद्धि (Average)
80 से 90 तकमन्द बुद्धि (Dull)
70 से 80 तकनिर्बल बुद्धि (Feeble Minded)
50 से 60 तकमूर्ख (Moron)
25 से 50 तकमूढ़ (Imbecile)
25 से नीचेजड़ बुद्धि (Idiot)

उपर्युक्त उदाहरण से हम एक सामान्य बुद्धि से ऋणात्मक मूल्य की ओर मंद बुद्धि तथा धनात्मक मूल्य की ओर उत्कृष्ट बुद्धि पाते हैं। इस प्रकार बुद्धि के ऋणात्मक और धनात्मक परिवर्त्य बताए गये हैं। इन बौद्धिक परिवर्त्य को मापनी से भी प्रकट किया जा सकता है, जैसे-मन्द सामान्य उत्कृष्ट।

व्यक्तित्व के परिवर्त्य (Personality Variability)

          बौद्धिक परिवर्त्य के समान ही व्यक्तित्व के परिवर्त्य भी होते हैं। ये परिवर्त्य व्यक्तित्व के भिन्न –भिन्न प्रकारों में पाये जाते हैं। मनोवैज्ञानिक जुंग ने मानव-प्रकृति के आधार पर व्यक्तित्व के दो प्रमुख प्रकार बताए हैं- जैसे- अन्तर्मुखी व्यक्तित्व और बहिर्मुखी व्यक्तित्व। इन प्रकारों में इनसे संबंधित गुणों का पता चलता है जैसे- अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाला व्यक्ति लज्जाशील, संकोची, शांतिप्रिय और आत्मकेन्द्रित होता है। बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समाज में सामंजस्य करने में सचेत, आशावादी व्यवहार कुशल, सदा प्रसन्न तथा चिन्तामुक्त होता है। इसी प्रकार विभिन्न दृष्टिकोण से मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व के प्रकारों का वर्गीकरण किया है। जिसमें उनसे संबंधित गुण पाये जाते हैं जो कि व्यक्तियों में भिन्नता प्रकट करते हैं। अतः वे कारक जिससे व्यक्तित्व भिन्न दिखाई  देता है व्यक्तित्व के परिवर्त्य कहे जाते हैं। व्यक्तित्व संबंधी भिन्नताओं को जानने के लिए व्यक्तित्व के प्रकारों को भी जानना आवश्यक है जिसके द्वारा व्यक्तित्व के परिवर्त्यों को जाना जा सकता है। मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न आधारों पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण किया है, जैसे शरीर रचना के आधार पर, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के आधार पर और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधआर पर। इन्हीं आधारों पर व्यक्तित्व के परिवर्त्य भी बताये गये हैं। इनका विस्तृत वर्णन ‘व्यक्तित्व के स्वरूप और प्रकार’ अध्याय में किया गया है।

परिवर्त्य होने के कारण

          बौद्धिक एवं व्यक्तित्व के परिवर्त्यों के होने के क्या कारण हैं? इस पर भी विचार करना आवश्यक है। वैयक्तिक भिन्नता के कारण एवं व्यक्तित्व-विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जन्मजात अर्थात् आनुवांशिक एवं पर्यावरण संबंधी कारकों के रूप में ही ये परिवर्त्य पाये जाते हैं।

अधिगम में बुद्धि एवं व्यक्तित्व के परिवर्त्य की भूमिका

(Role of Intellectual and Personality Variables in Learning)

सीखने में बुद्धि और व्यक्तित्व के परिवर्त्य का बहुत महत्व है। व्यक्ति की बुद्धि उपलब्धियों, क्रियाओं एवं व्यवहार का निरीक्षण करके, परस्पर भिन्नता को समझा जा सकता है। इसी भिन्नता या अन्तर के कारण एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है। इस प्रकार की भिन्नता होना स्वाभाविक है। बुद्धि एवं व्यक्तित्व के परिवर्त्य को ध्यान में रखकर ही अध्यापक शिक्षण-विधि, पाठ्यक्रम एवं शिक्षा के लक्ष्य को निश्चित कर सकता है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार- “एक अध्यापक शीघ्र ही यह ज्ञात कर लेता है कि कुछ छात्र दूसरों से अधिक अच्छी तरह कक्षा कार्य कर लेते हैं। वे अधिक समय नहीं लगाते। वे त्रुटियाँ भी कम करते हैं। इस प्रकार के विभिन्न गुणों से तथा क्षमता से युक्त बालकों को हम तीव्र बुद्धि वाले बालक कहते हैं। तीव्र बुद्धि वाले पढ़ने में तेज व मंद बुद्धि वाले बालक कमजोर होते हैं और उन्हें किसी विषय को समझने में बहुत समय लगता है। इसका कारण उनमें बुद्धि का अन्तर है। व्यक्ति के व्यवहार प्रदर्शन के तरीकों में व्यक्तित्व के अन्तर का पता चलता है। उदाहरणार्थ कक्षा में कुछ छात्र आलसी या उग्र स्वभाव वाले उद्दंड प्रकृति के होते हैं, कुछ विशेष परिस्थितियों का धैर्य से सामना करने वाले होते हैं और कुछ शीघ्र घबड़ा जाने या उत्तेजित हो जाने वाले होते हैं। इस प्रकार विभिन्न गुणों और उपर्युक्त प्रकार की विशेषताओं से युक्त व्यक्ति पाये जाते हैं जिससे कि उन्हें अलग समझा जा सकता है। अतः शैक्षिक दृष्टि से छात्रों की अधिगम प्रक्रिया में व्यक्तित्व एवं बौद्धिक के परिवर्त्य को ध्यान में रखकर शैक्षिक कार्यक्रम उनकी व्यक्तिगत शैक्षिक आवश्यक्तानुसार बनाया जाय।

     शैक्षिक दृष्टि से अधिगम-प्रक्रिया पर व्यक्तित्व एवं बौद्धिक परिवर्त्यों का विशेष प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षक को इन परिवर्त्यों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। व्यक्तित्व एवं बौद्धिक परिवर्त्यों का ज्ञान बुद्धि परीक्षण एवं व्यक्तित्व-परीक्षण की सहायता से प्राप्त किया जा सकता है। इन परिवर्त्यों के ज्ञान की निम्नलिखित उपयोगिता है-

  1. बालकों के मनोवैज्ञानिक वर्गीकरण में सहायता

     तीव्र बुद्धि, सामान्य बुद्धि और मंद बुद्धि बालकों को अलग-अलग वर्ग में रखकर उनको योग्यतानुसार शिक्षा दी जाती है। यदि उन्हें एक ही वर्ग में रखकर पढ़ाया जाए तो उनमें समायोजन सम्बन्धी कठिनाई उत्पन्न होती है, जिसका प्रभाव अधिगम पर पड़ता है।

  • अध्यापक को शिक्षणकार्य में सहायता

जब तीव्र, समान्य और मंद बुद्धि बालकों को अलग-अलग वर्ग में रखा जाता है, तब शिक्षक भी उनके बौद्धिक स्तर के अनुसार विभिन्न शिक्षण-विधियों का प्रयोग कर सकता है। शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को रुचिपूर्वक पढ़ने और पढ़ाने में सुविधा होती है। बालक रुचिपूर्वक ध्यान लगाकर पढ़ते हैं।

  • पाठ्यविषयों के चुनाव में सहायता

बौद्धिक गुणों एवं स्तर के अनुसार बालकों को विषय चुनाव करने में सहायता दी जा सकती है। इस प्रकार शिक्षा में समय के अपव्यय का भी निवारण होता है।

  • समस्याग्रस्त बालकों से व्यवहार करने में सहायता

बालक की बुद्धिलब्धि एवं उनके सामान्य व्यवहार के कारणों को जानकर उपचार और सुधार किया जा सकता है।

वैयक्तिक भिन्नता जानने की विधियाँ

(Methods of Studying Individual Difference)

व्यक्तिगत भिन्नता ज्ञात करने के लिए निम्नांकित विधियों का प्रयोग किया जाता है-

  1. परीक्षण (Test)
  2. व्यक्ति इतिहास विधि (Case History Method)
  3. सामूहिक अभिलेख पत्र (Cumulative Record Card)
  • परीक्षण-

आधुनिक समय में वैयक्तिक भिन्नता का ज्ञान निम्नलिखित परीक्षाओं द्वारा प्राप्त किया जाता है-

  1. बुद्धि परीक्षण- व्यक्तिगत भिन्नता की जानकारी बुद्धि-परीक्षणों द्वारा प्राप्त की जाती है। बुद्धि परीक्षण का निर्माण बिने, साइमन, टरमन, स्टर्न आदि ने किया है।
  2. उपलब्धि परीक्षण- इन परीक्षणों द्वारा पाठशाला में पढ़ाए जाने वाले विषयों में विद्यार्थी ने कितना ज्ञानार्जन किया है, इसकी जाँच की जाती है। इस परीक्षा से विद्यार्थी की भिन्न-भिन्न योग्यता का पता लगता है।
  3. अभियोग्यता परीक्षण- इनके द्वारा विद्यार्थी को जिन विषयों में विशिष्ट योग्यता है, इसका ज्ञान प्राप्त होता है।
  4. निदानात्मक परीक्षण- नैदानिक परीक्षण द्वारा व्यक्ति या विद्यालय में विद्यार्थी की किसी विषय संबंधी कठिनाई अथवा कमजोरी का पता लगाया जा सकता है और फिर उनकी कठिनाई और कमजोरियों का निदान (उपचार) किया जाता है।
  5. अभिवृत्ति परीक्षण- अभिवृत्ति का आशय व्यक्ति के उस स्वभाव से है जिसके कारण कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु, संस्था, आदर्श या परिस्थिति में विश्वास करने लगता है या उनके प्रति अपना मत प्रकट करता है। अभिवृत्ति परीक्षणों द्वारा व्यक्ति-विशेष की अभिवृत्ति को जानने का प्रयास किया जाता है।
  • व्यक्ति इतिहास विधि-

इस विधि के द्वारा व्यक्ति के जीवन के इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। बालक का इतिहास जानने के लिए माता-पिता, अध्यापक, मित्र आदि की सहायता ली जाती है। इस प्रकार के अध्ययन से व्यक्तिगत भिन्नता की जानकारी होती है।

  • सामूहिक आलेख पत्र-

इस आलेख पत्र में विद्यार्थी के सम्बन्ध में सूचनाएँ लिखी जाती हैं- उपस्थिति, सामाजिक एवं आर्थिक पृष्ठभूमि, स्वास्थ्य, रुचियाँ, सामान्य योग्यताएँ, विशिष्ट कौशल, व्यक्तित्व के गुण, विद्यालय के प्रति दृष्टिकोण, विद्यालय का कार्य और प्रधानाचार्य का मत। इस आलेख पत्र को देखकर बालकों की भिन्नता जानी जा सकती है।

वैयक्तिक भिन्नता के ज्ञान का शिक्षा में महत्व

(Importance of the Knowledge of Individual Difference)

         आधुनिक मनोवैज्ञानिक बालकों की शिक्षा में वैयक्तिक विभिन्नताओं को बहुत महत्व देते हैं। वैयक्तिक विभिन्नता का ज्ञान प्राप्त हो जाने पर शिक्षक अपने छात्र का अधिक हित कर सकता है। प्रायः प्रत्येक कक्षा में सामान्य छात्रों के अलावा कुछ मंद बुद्धि और प्रतिभाशाली छात्र भी रहते हैं। कक्षा-शिक्षण सामान्य बुद्धि के बालकों के लिए ही उपयुक्त होता है। मंद बुद्धि और प्रतिभाशाली बालक इससे अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं, क्योंकि सभी को सामान्य रूप से एक ही पद्धति की शिक्षा दी जाती है। सभी छात्रों को एक ही विधि और एक ही प्रकार की शिक्षा देने से सभी को लाभ नहीं होता, अतः बालकों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को दृष्टि में रखते हुए उनकी शिक्षा में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक है।

कक्षा का सीमित आकार(Size) बालक की व्यक्तिगत भिन्नता को ध्यान में रखते हुए एक कक्षा में विद्यार्थियों की संख्या अधिक न होनी चाहिए। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि कक्षा में 20 या 25 छात्र से अधिक छात्र न हों। कक्षा में अधिक छात्र होने से शिक्षक उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित नहीं कर सकता। इस संबंध में रॉस ने कहा है- “प्रत्येक अध्यापक की संरक्षता में छात्रों की संख्या इतनी कम होनी चाहिये कि वह उन्हें व्यक्तिगत रूप से भली-भाँति जान सके, क्योंकि इस ज्ञान के बिना वह उनसे ऐसै कार्यों को करने के लिये कह सकता है जो उनमें से बहुतों के स्वभाव के अनुसार उनके लिए असम्भव हो।”

  • छात्रों का वर्गीकरण- प्रत्येक कक्षा में बालकों को उनकी वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर समरूप समूहों में विभाजित कर देना चाहिए। इस प्रकार से विभाजन में मानसिक योग्यता के साथ-साथ बालकों की शारीरिक आयु, सामाजिक तथा संवेगात्मक प्रवृत्ति का भी ध्यान रखना चाहिए। बुद्धि लब्धि के आधार पर तीव्र, सामान्य और मंद बुद्धि बालकों को अलग-अलग वर्गों में रखना चाहिए। इस प्रकार के कक्षा विभाजन से प्रत्येक प्रकार के बालकों को प्रगति करने का अवसर मिलता है।
  • पाठ्यक्रम निर्माण- वैयक्तिक विभिन्नता के अनुसार बालक तथा बालिकाओं की रुचि, बौद्धिक स्तर, अभियोग्यता, अभिवृत्ति तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यक्रम में विविध प्रकार के विषयों का समावेश हो। पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए। स्किनर महोदय का भी विचार है कि बालकों की विभिन्नताओं के चाहे जो भी कारण हों, वास्तविकता यह है कि विद्यालय को विभिन्न पाठ्यक्रमों के द्वारा उनकी विभिन्नताओं का सामना करना चाहिए।
  • शिक्षण विधि का चयन- व्यक्तिगत भेद के आकार पर ही शिक्षण-पद्धतियों का प्रयोग करना चाहिए। एक ही पद्धति से समस्त विद्यार्थियों को पढ़ना अमनोवैज्ञानिक है।
  • वैयक्तिक शिक्षण की व्यवस्था- आधुनिक शिक्षा जगत् में व्यक्तिगत रूप से दी जाने वाली कई प्रकार की शिक्षा प्रणालियों का जन्म हुआ जिनमें निम्नलिखित विधियाँ मुख्य हैं-
  • डाल्टन योजना, (ख) प्रोजेक्ट योजना, (ग) माण्टेसरी, (घ) किन्डरगार्टेन प्रणाली,

(ड.) विनेटिका योजना प्रणालीः- इस प्रणाली का आविष्कार कार्लटन वाशबर्न ने किया। इस प्रणाली में सीखने वाले को स्वयं अपनी गति के अनुसार सीखने का अवसर दिया जाता है। वैयक्तिक शिक्षण पर बल देते हुए रॉस महोदय ने कहा है- “कठिनाई का वास्तविक समाधान प्रकारों के अनुसार वर्गीकरण नहीं है वरन् व्यक्तिगत शिक्षण है, जैसा कि मान्टेसरी पद्धति अथवा डाल्टन प्रणाली में है। जिनकी सफलता में सन्देह के लिए कोई स्थान नहीं है।”

  •  शैक्षिक निर्देशन- व्यक्तिगत विभिन्नता की जानकारी प्राप्त करके शिक्षक छात्रों को शैक्षिक निर्देशन दे सकता है। शिक्षक उन्हें यह बता सकता है कि वे हाई-स्कूल या इण्टर कक्षाओं में कौन से विषय लें।
  • व्यावसायिक निर्देशन- छात्रों के शारीरिक, मानसिक एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों का अध्ययन करके ही उन्हें अनुकूल व्यवसाय चुनाव में सहायता दी जा सकती है। शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य ‘जीविकोपार्जन’ है। अतः जीवनयापन के लिए किसी-न-किसी व्यवसाय को चुनना पड़ता है। अतः वैयक्तिक भिन्नता के अनुसार छात्रा को व्यावसायिक निर्देशन देना आवश्यक है।
  • लिंग भेद के अनुसार शिक्षा- बालकों तथा बालिकाओं की  रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं और आवश्यकताओं में अन्तर होता है। अतः उनकी शिक्षा का आयोजन भी इन भिन्नताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिए। प्रारम्भिक शिक्षा में उनका पाठ्यक्रम समान हो सकता है, किन्तु माध्यमिक कक्षाओं में पाठ्यविषयों में कुछ अन्तर अवश्य होना चाहिए जैसे आजकल हाई स्कूल कक्षा में बालिकाओं के लिए गृह-विज्ञान तथा बालकों के लिए गणित पढ़ना अनिवार्य है।

वैयक्तिक भिन्नता पर आधारित शिक्षण प्रविधियाँ

(Teaching Techniques based on Individual Differences)

          शिक्षा के क्षेत्र में वैयक्तिक भिन्नता पर प्रमुख रूप से जोर दिये जाने के कारण विद्यालयों में दिये जाने वाला शिक्षण छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित होना चाहिए। इसके लिए अनेक प्रकार की प्रशिक्षण प्रविधियों का उपयोग किया जा सकता है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. डाल्टन प्रणाली-

डाल्टन पद्धति अथवा प्रयोगशाला योजना की रचना का श्रेय प्रसिद्ध अमेरिकन शिक्षाशास्त्रिणी मिस हेलन पार्कहर्स्ट को है। इस पद्धति का प्रारम्भ सन् 1920 ई0 में अमेरिका के मेसेच्यूसेट्स राज्य के डाल्टन नामक नगर में हुआ। इस प्रणाली के  अन्तर्गत छात्रों को यह स्वतंत्रता होती है, कि वह अपनी योग्यता, क्षमता एवें अभिरुचि के अनुसार कार्य कर सकें। उसे समय-सारणी के बन्धन में नहीं बाँधा जाता। हर एक विषय के लिए प्रयोगशालाएँ निर्मित की जाती हैं। इस पद्धति में अध्यापक एक पथ-प्रदर्शक के रूप में होता है। इस पद्धति का आशय स्पष्ट करते हुए मिस पार्कहर्स्ट ने लिखा है- “डाल्टन प्रयोगशाला योजना शिक्षण की प्रणाली अथवा पद्धति नहीं है, यह शैक्षिक पुनर्गठन की एक विधि है, जो सीखने एवं सिखाने की सम्बद्ध क्रियाओं में एकता स्थापित करती है।”

  • प्रोजेक्ट प्रणाली-

इस प्रणाली को योजना प्रणाली के रूप में भी जाना जाता है। प्रोजेक्ट प्रणाली का मूलाधार डीवी की विचारधारा है, परन्तु प्रणाली के रूप में इसके निर्माण तथा विकास का श्रेय विलियम किलपैट्रिक को ही है। इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए उन्होंनेकहा कि “योजना पूरे मन से किया जाने वाला एक उद्देश्यपूर्ण कार्य है, जो सामाजिक वातावरण में सम्पन्न होता है। योकम और सिम्पसन ने इसका अर्थ इस प्रकार बताया-योजना स्वाभाविक वातावरण में किये जाने वाले स्वाभाविक एवं जीवनतुल्य कार्य की एक बड़ी इकाई होती है। इसके अंतर्गत किसी कार्य को करने अथवा किसी वस्तु को बनाने की समस्या का पूर्णरूपेण निराकरण करने का प्रयास किया जाता है। यह अत्यधिक उद्देश्ययुक्त होता है।

किलपैट्रिक के अनुसार-“योजना सामाजिक वातावरण में पूर्ण संलग्नता से किया जाने वाला उद्देश्ययुक्त कार्य है।”

स्टीवेन्सन- प्रोजेक्ट एक समस्या-मूलक कार्य है, जिसे स्वाभाविक परिस्थिति में पूरा किया जाए।

बैलर्ड- प्रोजेक्ट यथार्थ जीवन का ही एक भाग है, जो पाठशाला को प्रदान किया गया है। तथा इसमें किसी कार्य की पूर्णता निहित होती है। यह कार्य शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक अथवा लगभग पूर्णतः मानसिकता से हो सकता है। यथा-गुड़िया का घर बनाना या सजाना, हाथ से किया जाने वाला कोई कार्य तथा नाटक का लेखन व अभिनय। इसमें विभिन्न प्रकार की अनेक क्रियायें समाविष्ट रहती हैं तथा इसको पूर्ण करने हेतु किसी भी उचित सामग्री का प्रयोग किया जा सकता है।

  • डेक्राली प्रणाली-

इस प्रणाली का प्रतिपादन डॉ0 ओविड डेक्राली ने किया। डॉ0 ओविड डेक्राली बेल्जियम में प्रोफेसर थे। यह विधि छात्र को मूर्त एवं अमूर्त कार्यों को करने का अवसर प्रदान कर आत्म-प्रकाशन को उत्साहित करती है। ये ‘जीवन के लिए जीवन द्वारा’ सिद्धान्त पर आधारित विधि है। इस विधि में बालकों का विभाजन उनकी रुचि, क्षमता, स्तर और योग्यता के अनुसार किया जाता है।

ह्यूज और ह्यूज के अनुसार, “डेक्राली विधि बालक को मूर्त एवं अमूर्त कार्यों को करने का अवसर प्रदान कर आत्म-प्रकाशन को उत्साहित करती है। यह “जीवन के लिए, जीवन द्वारा” सिद्धान्त पर आधारित है।”

मेयर ने डेक्राली योजना के निम्नलिखित सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण किया है-

  1. बालक की भिन्न-भिन्न आयु में भइन्न-भिन्न रुचियाँ होती हैं।
  2. बालक को सामाजिक जीवन के लिए तैयार करना।
  3. भावी जीवन के लिए तैयारी।
  4. संविदा विधि-

संविदा प्रणाली डाल्टन और विनेटिका प्रणाली का मिश्रित रूप है। इसमें अध्ययन की विषय-वस्तु निर्धारित कर दी जाती है और पाठ्यवस्तु  पूरी होने के बाद छात्रों की परीक्षा ली जाती है। इसके परिणामस्वरूप यह जानने का प्रयास किया जाता है कि छात्र किस दृष्टि से पिछड़ा है । उसके बाद उसका निदान कर, शिक्षा व्यवस्था की जाती है। इसमें समय-सारणी का बन्धन नहीं होता। छात्र को कार्य करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। इसमें छात्रों को सप्ताह, महीने या वर्षभर का कार्य एक ही साथ दिया जाता है।

  • क्रियात्मक विधि-

“क्रियात्मक पद्धति का आशय बालक के स्वयं क्रिया के माध्यम से ज्ञानार्जन करने से है। यह वास्तव में कोई योजना नहीं बल्कि शिक्षण प्रक्रिया का एक पहलू है।

रिचर्ड सेफर्थ- “क्रियात्मक विधि जो क्रियाशीलता के सिद्धान्त पर आधारित है, परीक्षणों के द्वारा निष्पक्ष रूप से शिक्षण की सर्वोत्तम विधि स्वीकार की गयी है।”

शोइनचेन-क्रियात्मक पद्धति का प्रयोग उस समय किया जाता है, जब किसी विषय के शिक्षण लक्ष्यों को आगे बढ़ाने हेतु, बालकों द्वारा किसी प्रकार की क्रिया की जाती है।

पेस्टालॉजी ने बताया कि बालक की क्रिया चेतना तीन स्तरों, जैसे- चिन्तनात्मक, निर्णय और रुचि को प्रभावित करती है।

सूसन मार्कले- अभिक्रमित अनुदेशन एक ऐसी व्यूह रचना है, जिसकी सहायता से शिक्षण सामग्री को  एक ऐसे क्रम में नियोजित किया जाता है, जिसमें बालकों में लगातार अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाने का प्रयास किया जा सकता है तथा उनका मापन भी किया जा सकता है।

डी.एल. कुक- अभिक्रमित अध्ययन स्वयं शिक्षण विधियों की विस्तृत अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए प्रयुक्त एक पर्याय है।

फ्रैड स्टोफैल- ज्ञान के छोटे-छोटे अंगों को एक तार्किक क्रम में व्यवस्थित करने को अभिक्रम व इसकी समग्र प्रक्रिया को अभिक्रमित अध्ययन कहते हैं।

  • किण्डरगार्टन प्रणाली-

इस प्रणाली के प्रतिपादक फ्रोवेल हैं। किण्डरगार्टन क जर्मन शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘बच्चों का बगीचा’। बालोद्यान फ्रोबेल प्रकृति के पुजारी थे। उन्होंने शिक्षक को बगीचे का माली और छात्र को पौधे के रूप में स्वीकार किया। इसमें बालक को पुस्तकीय ज्ञान से लादा नहीं जाता, बल्कि उसको स्वतंत्र रूप से विकसित होने, हँसने, बोलने, घूमने दिया जाता है। इस प्रणाली में खेल द्वारा शिक्षा प्रदान की जाती है। यह एक प्रकार से बालकेन्द्रित प्रणाली है।

  • विनेटिका प्रणाली-

विनेटिका प्रणाली के प्रतिपादक डॉ. कार्लटन वाशबर्न हैं। डॉ. वाशबर्न अमेरिका के निवासी थे। उन्होंने इस योजना का प्रारम्भ अमेरिका स्थित इलीनाइस राज्य के विनेटिका नामक नगर में किया था। इसीलिए इसे विनेटिका योजना कहते हैं। इस योजना का पूरा विवरण उन्होंने अपनी पुस्तक “एडजस्टिंग द स्कूल टू द चाइल्ड” में किया।

रिस्क के अनुसार- ‘विनेटिका व्यक्तिगत शिक्षण की योजना इस प्रकार की योजनाओं से अधिक व्यापक रूप से जानी जाती है।”

  • माण्टेसरी प्रणाली-

इस प्रणाली की जन्मदात्री डॉ0 मेरिया माण्टेसरी हैं। छोटे बच्चों को शिक्षित करने की यह एक लोकप्रिय प्रणाली है। यह प्रणाली एक मनोवैज्ञानिक प्रणाली है। इस प्रणाली में व्यावहारिक उपकरणों तथा सभी इन्द्रियों (जैसे दृष्टि, श्रवण, स्वाद आदि) के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। अतः विकास के स्वरूपों को हमें दबाना नहीं चाहिए न ही कुरूप बनाना चाहिए, बल्कि उनकी उचित देखभाल करनी चाहिए।

  • बेसिक शिक्षा प्रणाली-

इस प्रद्धति के जन्मदाता मोहनदास करमचन्द गाँधी थे। यह पद्धति बालक के सर्वांगीण विकास पर बल देती है। इसमें अनिवार्य तथा निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है। यह हस्तकला पर आधआरित है। इसका माध्यम मातृभाषा होती है। यह बालकेन्द्रित शिक्षा पर आधारित है। इससे बालक को आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया जाता है।

  1. ह्यूरिस्टिक पद्धति-

ह्यूरिस्टिक शब्द ग्रीक में ह्यूरिस्को शब्द से उत्पन्न माना जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘मैं खोजता हूँ’। ह्यूरिस्टिक पद्धति में बालक तथ्यों की खोज स्वयं करते हैं। बालकों का कार्य अन्वेषकों के समान होता है। उन्हें तथ्यों की खोज स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा करनी पड़ती है। इश पद्धति के सम्बन्ध में नन के विचार इस प्रकार हैं “क्योंकि ह्यूरिस्टिक पद्धति का उद्देश्य बालक को मौलिक अन्वेषक की स्थिति में रखना है, इसलिए यह स्पष्ट रूप से खेल प्रणाली है।”

  1. खेल द्वारा शिक्षा-

खेल को सर्वप्रथम महत्व देने का श्रेय हेनरी काल्डवेल कुक को जाता है। उनके अनुसार खेल बालकों की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, जितना उनका मन और ध्यान खेल में लगता है, उतना और किसी कार्य में नहीं। उनका मानना है कि बालक को खेल द्वारा शिक्षा प्रदान करके उसका उचित विकास किया जा सकता है।

  1. पर्यवेक्षित अध्ययन-

पर्यवेक्षित अध्ययन को स्पष्ट करते हुए बासिंग महोदय ने लिखा है कि “पर्यवेक्षित अध्ययन से तात्पर्य है, विद्यार्थी का समुचित निर्देशन, ताकि वह कक्षा में अध्यापक के निरीक्षण में कार्य करता हुआ, स्वाध्याय की कुशल प्रविधियों से परिचित हो सके और उन पर अधिकार प्राप्त करके, उनका कुशल प्रयोग कर सके।

हाल क्वैस्ट महोदय ने पर्यवेक्षित अध्ययन का सिद्धान्त इस प्रकार व्यक्त किय़ा है- “जैसे-जैसे बालक अपने वातावरण में जीवनयापन करताहै, वैसे-वैसे वह अपने को शिक्षित करता है।” उनका मानना है कि अध्ययन तथा पाठशाला का कार्य बालक का ठीक-ठाक मार्गदर्शन करना है, ताकि सीखने की प्रक्रिया ठीक रूप से चल सके।

  1. गैरी शिक्षण प्रणाली-

इस पद्धति का विकास संयुक्त राज्य अमेरिका के दण्डियाना राज्य के गैरी नामक स्थान पर हुआ। इसके प्रवर्तक डब्ल्यू ए. बर्ट हैं। उन्होंने इस प्रणाली के तीन बातों को महत्व दिया – कार्य, खेल तथआ अध्ययन। इस आधार पर इस पद्धति में तीन बातें प्रमुख रूप से सामने आयीं-

  • बालक की क्रियाएँ-जिन्हें कार्य की संज्ञा दी जाती है।
  • बालक की वे क्रियाएँ जिनके द्वारा मनोरंजन होता है, उन्हें खेल की संज्ञा दी जाती है।
  • बालक की ऐसी सभी क्रियाएँ जिनका सम्बन्ध ज्ञान-प्राप्ति के साथ होता है, उन्हें अध्ययन कहा जाता है।

इस शिक्षण-प्रणाली के अनुसार विद्यालय अंशतः विद्यालय है और अंशतः घर।

  1. वार्तालाप विधि-

इसकी सर्वोत्तम परिभाषा देते हुए योकम तथा सिम्पसन महोदय ने कहा है कि “दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य में मित्रतापूर्ण तथा अनौपचारिक बातचीत को वार्तालाप कहा जाता है।”

इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • व्यक्ति के विचारों की मौलिक अभिव्यक्ति।

(ब) मानव से मानव के बीच अपने अनुभवों का आदान-प्रदान।

  (स) वार्ता का माध्यम अनौपचारिक।

  1. कहानी पद्धति-

कहानी का प्रयोग शैक्षिक दृष्टि से भई किया जा सकता है। इसके माध्यम से छात्र-बहुत सी बातें रोचक ढंग से सीख लेता है। छोटी कक्षाओं में छोटे बच्चों के लिए तो यह अत्यन्त उपयोगी विधि है। पाठशाला के बहुत से सूक्ष्म तथा गहन विषयों को भी इस विधि द्वारा सरल तथा रुचिपूर्ण बनाया जा सकता है।

  1. इकाई योजना-

शिक्षण-विधि के रूप में पहले हरवार्ट की शिक्षण पद्धति का प्रचलन था। यह इकाई योजना शिक्षण की वह विधि है, जिसके द्वारा विषय-वस्तु की शिक्षण विधियों तथा शिक्षण युक्तियों को इस प्रकार गठित किया जाता है कि सीखने की परिस्थितियाँ प्रभावशाली बन सकें।

वैयक्तिक विभिन्नताओं का शिक्षा में प्रभाव एवं महत्वः

वैयक्तिक विभिन्नताओं का शिक्षा में प्रभाव निम्नवत् हैः-

  1. छात्रों का वर्गीकरण करने में
  2. व्यक्तिगत शिक्षण में
  3. शिक्षण विधि में
  4. बालकों की रुचि में
  5. कक्षा के आकार में
  6. पाठ्यक्रम का विभिन्नीकरण में
  7. बालकों को गृह कार्य वितरण में
  8. बालकों के रुचियों का विकास करने में
  9. लिंग भेद के अनुसार शिक्षा के स्वरूप निर्धारण में।

BY SUSHIL KUMAR PANDEY

M.Sc. , M.A. , LL.B. B.Ed.

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